शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री रहते हुए तीसरा विधानसभा चुनाव लड़ने मैदान में उतर रहे है। पिछले दो चुनावों की तरह इस बार भी भाजपा शिवराज भरोसे मैदान में उतर रही है। टिकट वितरण से लेकर घोषणा पत्र तक, कोई भी फैसला शिवराज सिंह की सलाह के बिना नही हो रहा। आरएसएस द्वारा 100 से ज्यादा मौजूदा विधायकों की टिकट काटने के सुझाव को भी शिवराज सिंह ने हासिये पर रख दिया। शिवराज सिंह चौहान की इजाजत के बिना मध्यप्रदेश भाजपा का एक पत्ता भी नही हिल रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर को तक अपनी बहू को टिकट दिलाने के लिए मौन व्रत धारण करना पड़ गया। तो वहीं दिग्गज नेता सरताज सिंह की तो दाल ही नही गली। आलम यह है कि भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और अमित शाह के बेहद करीबी नेता कैलाश विजयवर्गीय को भी अपने बेटे को टिकट दिलाने के लिए अपनी सीट त्याग करनी पड़ गयी।
एक ओर शिवराज सिंह चौहान प्रदेश में अपने आगे किसी की चलने नही दे रहे तो वहीं लोग भी अब शिवराज सिंह चौहान से दूरी बना रहे है। चुनाव में जीत हुई तो ताज शिवराज सिंह चौहान के सर पे होगा लेकिन अगर हारी तो हार का ठीकरा भी शिवराज सिंह के सर ही फोड़ा जाएगा।
लगातार 14 साल मुख्यमंत्री रहने के बाद शिवराज का जादू अब मध्यप्रदेश में फीका पड़ता जा रहा है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को भी अब हार की सुगबुगाहट होने लगी है। यही कारण है कि गुजरात मे 34 और कर्नाटक में 21 रैली करने वाले प्रधानमंत्री मोदी मध्यप्रदेश में एक दर्जन से भी कम रैली करने वाले है। मध्यप्रदेश में अभी तक आरएसएस भी सक्रिय भूमिका में नही आया है। अचार सहिंता लगने के बाद से शिवराज सिंह चौहान की जनआशीर्वाद यात्रा में से भी भीड़ गायब होने लगी थी। जिसके कारण मुख्यमंत्री को यह यात्रा बीच मे ही रोकनी पड़ गयी।
सरकार विरोधी लहर से पार पाना शिवराज के लिए मुश्किल
मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार को 13 साल और भाजपा सरकार को लगभग 15 साल होने को है। जनता, कर्मचारी वर्ग और यहां तक कि मीडिया भी शिवराज के चेहरे से ऊब चुका है। भाजपा नेताओं के कार्यक्रम में खाली कुर्सी, स्पाक्स का चुनावी मैदान में उतरना और मीडिया में दिखाए गए सर्वे तो यही इशारा कर रहे है। प्रदेश का जो मीडिया अभी तक शिवराज गाथा गए नही थकता था, उसी मीडिया ने संबित पात्रा जैसे प्रवक्ता को होटल के रूम में बैठने को मजबूर कर दिया है।
हार का डर अब पार्टी में बैठे लोगों को भी होने लगा है। तभी कांग्रेस से ज्यादा भाजपा के नेता पाला बदल रहे है। टिकट घोषित होने से पहले ही भाजपा के दो मौजूदा विधायक और खुद शिवराज सिंह चौहान के साले ने उनका साथ छोड़ कांग्रेस का हांथ थाम लिया है। भाजपा को प्रदेश की सत्ता पर बैठने वाला किसान, युवा और सवर्ण वर्ग भी अब सरकार से रूठा बैठा है।
कांग्रेस की तिकड़ी कर सकती है कमाल
2003 विधानसभा चुनाव हारने के बाद से मध्यप्रदेश कांग्रेस में गुटबाजी के आरोप लगते आए है। भाजपा की जीत के पीछे भी कांग्रेस के नेताओं का बागी होना एक बड़ा कारण रहा है। लेकिन इस बार हालात पिछले 3 चुनावों से काफी अलग है। कमलनाथ, सिंधिया और दिग्विजय समेत कांग्रेस के सभी नेता अब एक मंच पर आ रहे है, एक लाइन पर चल रहे है और एक ही बात बोल रहे है। टिकट बटवारे के बाद जो अंतरकलह कभी कांग्रेस में दिखाई देती थी वह अब भाजपा में दिखाई दे रही है। कांग्रेस पार्टी में दिख रही इस एकता का बड़ा श्रेय समन्वय समिति के अध्यक्ष दिग्विजय सिंह को जाता है। दिग्विजय सिंह ने न सिर्फ प्रदेश भर का दौरा कर कांग्रेस के पुराने कार्यकर्ताओं को सक्रिय किया बल्कि टिकट न मिलने पर नाराज कांग्रेस नेताओं को भी पार्टी के साथ लाए।